सम्राट अशोक कलिंग को पराजित कर उसकी राजधानी में पहुँचे तथा अपने मंत्रियो और सेनापतियों को लेकर एक सभा की। सभा में अशोक ने कलिंग विजय पर अपने सेना की प्रसंशा की। अचानक सभा के बिच में एक बौद्ध भिक्षु आ पहुँचा। उस भिक्षु ने " सम्राट अशोक की जय हो " कहकर अभिवादन किया।
सम्राट ने पूछा - कहिये भिक्षु महाराज ! आपको क्या चाहिए ?
भिक्षु ने कहा - सम्राट, में आपसे यह पूछना चाहता हूँ कि आपने लाखो मनुष्य का कत्ल करके , लाखो को घायल करके इस कलिंग राज्य पर जो विजय पाई है, क्या यह सच्चा विजय है। क्या यह विजय मानवता का विकाश कर पायेगी ?
सम्राट अशोक क्रोधित हो गए। अशोक के आँखों में अंगारे देख महामंत्री राधागुप्त बोले " भिक्षुवर, अपनी वाणी पर सयंम रखे और दरबार की मर्यादा का पालन करे।
भिक्षु ने निडर होकर उत्तर दिया - महामंत्री जी, सत्य को सुनना हमेशा कठिन होता है। में एक भिक्षु हूँ और सत्य कहना एक भिक्षु का धर्म है। में युद्धभूमि से कलिंग के लाखों लोगों को दर्द से कराहते हुए देखकर आया हूँ। आपको क्या मिला यह युद्ध करके।
सम्राट अशोक क्रोध से तिलमिला उठे, उन्होंने भिक्षु को कठोर से कठोर दंड देने की आज्ञा दी।
सम्राट की आज्ञा सुन, वह भिक्षु हंसने लगा और कहा सम्राट में मृत्यु से नहीं डरता, एकदिन सबको मरना है। आप लाखों लोगो को मारकर, उनके लाशों के ढेर पर खुशियाँ मनाना चाहते है। ठीक है सम्राट, यह कलिंग की लहू-लुहान धरती आपके जित की स्वागत के लिए तैयार है। रोती स्त्रियाँ आपके विजय पर मंगल बधाईया दे रही है।
भिक्षु के तीखे वचनों को सुन सम्राट अशोक अपना धैर्य खोकर उसे तुरंत खोलते हुए तेल में डालने की आज्ञा दे दी।
आज्ञा पाते ही कुछ सैनिक उन्हें पकड़ कर दंड देने ले गए।
उसी दौरान सम्राट अशोक ने वीर सैनिको को पुरुस्कृत किया और अपने मंत्री से बातचित कर रहे थे। इतने में एक सैनिक आकर कहता है, " सम्राट ! महा आश्चर्य की बात है, खौलते तेल में डाल देने पर भी उस भिक्षु का मरना तो दूर, उसे तनिक भी हानि नहीं पहुंची। सम्राट अचरज में पड़ गए, महामंत्री ने कहा यह असंभव है, चलिए महाराज सामने जाकर सच्चाई का पता करते है।
महामंत्री और सम्राट दोनों उस भिक्षु के पास पहुंचे। जहाँ उसे गर्म खौलते हुए तेल में डाला गया था। वहां पर जितने भी लोग थे सभी उस भिक्षु को घेरे हुए थे और उसका गुणगान कर रहे थे। सम्राट ने देखा, तेल आग की लपटों को पाकर खूब खौल रहा था और वह भिक्षु आँख बंद करके समाधि लगाया हुआ था एवं उसके मुँह से "नमो बुद्धाय " की उच्चारण धीमे स्वर में आ रही थी। उस खौलते हुए गर्म तेल से उसके शरीर पर जरा सी भी क्षति नहीं पहुँच रही थी। सम्राट के मन में उसके लिए श्रद्धा उत्पन्न हो गयी। उन्होंने तुरंत आग को बुझाने का आज्ञा दी और उस भिक्षु को कढ़ाई से बाहर निकाला। सम्राट भिक्षु के सामने सर झुकाकर कहा "भिक्षुवर क्षमा करे। में आपके साथ अत्याचार कर बैठा "
भिक्षु ने कहा " सम्राट! तुम्हे अपनी शक्ति पर बहुत अहंकार था। लेकिन तुम्हारी शक्ति की हार हुई। तुम तलवार से लोगो को मारकर अपना साम्राज्य तो विस्तार कर सकते हो लेकिन किसी मनुष्य का हृदय नहीं जित सकते। उसके विचारों पर नहीं छा सकते। हिंसा से हिंसा उत्पन्न होता है और इससे मानवता का नाश होता है। तुम मनुष्य जाती को सुख और शांति नहीं दे सकते। अपना साम्राज्य बढ़ाने के लिए मनुष्यों को न सताओ। प्रेम और दया से मनुष्य के हृदय को जीतो।
सम्राट बोले " भिक्षुवर मुझे क्षमा करे ! आपके बातो में सार है, आप जो बता रहे है इनसे राक्षस को भी मनुष्य बनाया जा सकता है। में आज से अपनी निति में परिवर्तन करूँगा।
सम्राट का हृदय परिवर्तन हो गया उन्होंने युद्ध न करने की घोषणा की एवं कभी भी तलवार न उठाने की प्रतिज्ञा की। उन्होंने पशु बलि बंद करवाया और कहा जिव हिंसा पाप है। पशुओ का वध करने से अपना कल्याण नहीं हो सकता। धर्म के नाम पशुओं की बलि देना अधर्म है।
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जब सम्राट अशोक ने बौद्ध भिक्षु को खौलते तेल में डाल दिया-JAB SAMRAT ASHOK NE BODDH BHIKSHU KO KHOULTE TEL ME DAAL DIYA
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A STORY OF SAMRTA ASHOK HINDI
सम्राट अशोक और बौद्ध भिक्षु
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